Share

मोहम्मद अनस

यदि मैं देश में रहने वाले हिंदुओं से कहूं कि ‘अगर देश में रहना होगा, अल्लाह हू अकबर कहना होगा।’

कैसा लगेगा? है न हरमजदगी वाली बात। कट्टरता और ख़ौफ पैदा करने वाली बात।

फिर मैं कहूं कि भारत देश, अल्लाह का देश है। तुमको देश के लिए अल्लाह हू अकबर बोलना ही होगा।

फिर क्या होगा? देश की आड़ में हिंदुओं से ‘अल्लाह हू अकबर’ कहलवाया जाएगा। लेकिन क्या यह सही होगा? बिल्कुल नहीं। हम अपने अल्लाह को किसी पर कैसे थोप सकते हैं। हिंदुओं के अपने आराध्य हैं। देवी-देवता और भगवान हैं। फिर उनसे अल्लाह की जय जयकार क्यों करवानी? यह तो बिल्कुल भी न्यायोचित नहीं है।

अब आते हैं ‘वंदे मातरम’ पर।

इस्लाम एकेश्वरवाद की अवधारणा पर आधारित घर्म है। ईश्वर के अलावा किसी अन्य की पूजा करना पाप है। भारत माता की अवधारणा इस्लामिक तौर पर ठीक नहीं। इस्लाम, सूरज़/चंद्रमा/धरती/आकाश को किसी भी प्रकार की उपमा देने का विरोधी है। बंकिम चंद्र चटर्जी ने वंदे मातरम् गीत में भारत देश को देवी दुर्गा का स्वरूप मानते हुए देशवासियों को उस माँ की संतान बताया है।

यदि मैं देश में रहने वाले हिंदुओं से कहूं कि 'अगर देश में रहना होगा, अल्लाह हू अकबर कहना होगा।' कैसा लगेगा? है न…

Mohammad Anas ಅವರಿಂದ ಈ ದಿನದಂದು ಪೋಸ್ಟ್ ಮಾಡಲಾಗಿದೆ ಶನಿವಾರ, ಜೂನ್ 22, 2019

उन्होंने भारत को वो माँ बताया जो अंधकार और पीड़ा से घिरी है। उसके बच्चों से बंकिम आग्रह करते हैं कि वे अपनी माँ की वंदना करें और उसे शोषण से बचाएँ। पहली आपत्ति यहीं पर दर्ज हो रही है। यदि आप आनंद मठ जहां से यह गीत लिया गया है को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि बंकिम ने उस समय के मुस्लिम शासकों के प्रति काफी हद तक घृणा परोसी है। आनंद मठ हिंदू साधुओं द्वारा, मुस्लिम राजाओं के विरूद्ध किए गए आंदोलन की कहानी पर आधारित है। बंकिम ने इसमें मुसलमानों के प्रति काफी तीखी भाषा का इस्तेमाल किया है।

आज़ादी से पहले ही इस गीत पर कांग्रेस में दो फाड़ हो गई थी। मुस्लिम लीग ने विरोध के बावजूद इस गीत के शुरूआत के दौ पैरा पर सहमति जताई थी, लेकिन हिंदू महासभा पूरे गीत पर अड़ी रही। अंत में नेहरू तथा गाँधी ने सर्व सहमति से इस गीत को नकार दिया। लेकिन राजेंद्र प्रसाद द्वारा बहुसंख्यक राष्ट्रवाद को उभारने हेतु इसे फिर से सामने लाया गया। पाकिस्तान में मुस्लिम कट्टरपंथ से मुकाबला करने के लिए भारत में हिंदू कट्टरपंथियों को सरकार ने खूब मदद की। सरहद के दोनों ओर धर्म के नाम पर सत्ता का इस्तेमाल किया गया। और जिसका नतीज़ा है कि दोनों ही मुल्क अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में विफल रहे और आज भी इन्हीं सब बातों में उलझे हुए हैं।

(लेखक मोहम्मद अनस, स्वतंत्र पत्रकार तथा सोशल मीडिया विशेषज्ञ हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

About The Author

Share

You cannot copy content of this page