शब्द और रचाव
बीकानेर hellobikaner.com शब्द तो शब्द है, पूर्ण समर्थ किंतु एक रचनाकार की हैसियत से लगता है कि शब्द के प्राणवान, सशक्त तथा और अधिक समर्थ होकर पल्लवित होने की प्रक्रिया है – सृजन या रचाव। सृजन या रचाव के बाद कमोबेश ठीक वही अनुभूति होती है जो संतान को जन्म देने के बाद एक औरत को होती है , अंतर केवल इतना होता है कि एक तरफ जीवन होता है तो दूसरी तरफ शब्द, जो किसी रचना का हिस्सा बन जाने के बाद केवल शब्द नहीं रह जाते, वे भी प्राणवान और ऊर्जावान हो जाते हैं।
रचनाकार उन्हें अपने भीतर और स्वयं को उनके भीतर महसूस सकता है लेकिन हर पाठक को रचना के शब्दों के प्राणवान होने का एहसास हो, यह कत्तई जरूरी नहीं है क्योंकि ऐसा होने के लिए पहले यह जरूरी है कि रचना जिस मानसिक धरातल पर आकर रची गई है, उसी धरातल पर आकर उसे सुना, पढ़ा या समझा जाए। अगर ऐसा नहीं होता है तो रचना स्वयं के भीतर ही दबी- सिमटी रह जाती है। कई लोग मानते हैं कि रचाव की प्रक्रिया इतनी सरल और सहज नहीं है जितनी उसे कई लोगों द्वारा परिभाषित किया जाता है।
शायद नहीं हो और शायद हो भी। जटिल, कठिन, सहज, सरल को जाने भी दें तो भी यह तो कहना ही होगा कि रचना प्रक्रिया में (मेरे मतानुसार) एक चक्रव्यूह जैसा. कुछ होता है। रचने के समय हमें उसमें प्रविष्ट होकर उसके घेरों को तोड़ते हुए केंद्र बिंदु तक पहुंचना पड़ता है और वहां से शुरू होती है रचाव और उसके बाद की प्रक्रिया। यह तो जरूरी माना जाएगा कि मौन के मुखर होकर शब्दों के मुंह बोलने की प्रक्रिया के बाद सफलतापूर्वक भावों की भूमि पर मौन बिछाकर पुन: हमें अपनी जमीन लौटना आना ही चाहिए।
रचना की प्रक्रिया शायद कुछ ऐसी ही हो, शायद कुछ भिन्न भी हो सकती है मगर है जरूर। दृष्टि की भिन्नता और सोच का आरोह- अवरोह हर मस्तिष्क में अनुभूतियों को अलग-अलग शक्ल प्रदान करता है। ये अनुभूतियां रचाव की उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है जो शब्दों में प्राणों का संचार करती हैं, उन्हें संस्कारित करती हैं, तब कहीं जाकर वे शब्द श्रोता या पाठक से अपने पहले ही उच्चारण या पाठन के दौरान सीधा तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। कुछ समयोपरांत लगता है कि फिर कुछ होगा, भाव पनप रहे हैं, बाहर निकलने को आतुर हैं । आहट सुनाई देती है जैसे किसी के आने पर दरवाजा खटखटाया जाता है, द्वार खोला जाता है और हम फिर निकल पड़ते हैं उसी आहट के साथ। फिर वही चक्रव्यूह और उसमें प्रविष्ट होकर पुन: लौटने तक की यात्रा या वैसा ही कुछ। – संजय वरुण